शनिवार, 31 दिसंबर 2016

गलाफाड़ रहा….वर्ष 2016

गलाफाड़ रहा….वर्ष 2016
प्रदुषण कई तरह के हैं जो किताबों में पढाये जाते हैं पर एक नए तरह के प्रदुषण का कहीं कोई जिक्र नहीं मिलता वो है सोशल मीडिया का प्रदुषण। गत पूरे वर्ष में ऐसा देखा गया कि सोशल मीडिया पर वातावरण दूषित करने वाला ही रहा चाहे व्हाट्सएप्प ग्रुप पर हो या ट्विटर पर या फेसबुक पर।
मोबाइल फ़ोन निश्चित रूप से एक बहुत ही बड़ा अविष्कार है और सोशल मीडिया उससे भी बड़ा। सोशल मीडिया जिसका उद्देश्य लोगों को परस्पर इस तरह जोड़ना है कि पूरा विश्व हमारी मुट्ठी में समा जाए वही देखा गया कि सोशल मीडिया के कारण विश्व बिखर रहा है या हिस्सों में तो बंट ही रहा है।
सोशल मीडिया के सभी प्लेटफार्म पर विचारधारा दो भागों में बँटी दिखती है। हर व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान उसकी विचारधारा से ही होती है और निश्चित रूप से हर व्यक्ति की एक विचारधारा होती है जो उसकी सोच, उसके ज्ञान से पैदा होती है जो व्यक्ति में एक विचार पैदा करती है और व्यक्तित्व का एक ढांचा खड़ा करती है। पर सोशल मीडिया के प्रादुर्भाव और फॉरवर्ड मार्किट के प्रभाव से व्यक्ति की नैसर्गिक विचारधारा अंत हो गयी सी दिखती है।
इस वर्ष में यही सब कुछ हुआ। सोशल मीडिया पर इस तरह गलाफाड़ चलती रही कि पूरा वातावरण ही प्रदूषित हो गया। लोगों ने यहां से वहां से सब जगह से कचरा बीन-बीन कर दूसरों की दीवार पर दे मारा। इस तरह की गलाफाड़ से सोशल मीडिया का मुख्य उद्देश्य चला गया और सिर्फ गंदगी फ़ैलाने का जरिया बन गया। सोशल मीडिया कई बार तो सिर्फ राजनैतिक विचार संघर्ष का मुद्दा बन गया।
जिन लोगों ने कभी अपने माता-पिता को सपोर्ट नहीं किया वो नेताओं को सपोर्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़े। व्हाट्सएप्प पर, फेसबुक पर, ट्विटर पर भांति-भांति के नेताओं की फोटो DP बनाकर लगाई गयी। देशभक्ति के नाम पर विषवमन हुआ। नहले पे दहला हुआ, दहले पे गुलाम हुआ, गुलाम पे बेगम हुई, बेगम पे बादशाह हुआ और इक्का बेफिक्रे मौज करता रहा। गलफाड़ी इस कदर हुई कि कि कइयों को नया डाटा पैक डालना पडा, मोबाइल बार-बार चार्ज करना पड़ा और कई बार सस्ते के लिए पोर्ट कराना पड़ा - हालांकि JIO ने कुछ हद तक समस्यांए ख़त्म करने की कोशिश की पर JIO के कारण मोबाइल जल्दी डिस्चार्ज की समस्या पैदा हो गयी। गलाफाडी का आलम रात –दिन, सुबह-शाम मध्यरात्रि- देर रात्रि, ब्रह्म मुहूर्त सब समय चलता रहा। सुबह उठने से रात के सोने तक सोशल मीडिया पर गलफाड़ी चलती रही। लगा देश संकट में था या गलफाड़ी ना करें तो संकट में आ जाएगा।
फॉरवर्ड मेसेज को सबसे पहले भेजने की होड़ में कई बार बिना पढ़े ही फॉरवर्ड किया जाने लगा। गत-वर्ष में जब कभी व्हाट्सएप्प के सभी ग्रुप डाटा ऑन करने पर चमके - 206 unread messages. ऐसे लगा जैसे क्रांति आ गयी। तभी किसी ने मैसेज किया - "बेटा क्रांति के लिए खून बहाना पड़ता है, बटन दबाने से क्रांति नहीं आती" - ऐसे मेसेज से भी फॉरवर्डी हतोत्साहित नहीं हुए । लगा जैसे मैं स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए संघर्ष सामने होते देख रहा हूँ पर हताशा हुई क्योंकि अंग्रेज नहीं दिखे और देशवासी आपस में जा भिड़े नंगी तलवारें सानकर। यहां पर लोक हार गया और तंत्र जीत गया। पर इस सबसे कुछ फायदा नहीं हुआ। देश उसी चौराहे पर खड़ा है जहां 1947 में था या 1977 में या 1996 में या 2004 में या 2014 में। सिर्फ एक चीज ही इसमें नयी आ जुडी है और वो है मोबाइल फ़ोन। धीरे धीरे यकीन हो चला है कि देश के लिए आखिरी बार राजनीति 1947 में हुई थी - उसके बाद से आज तक जो भी राजनीति हुई है वो कुर्सी के लिए हुई है और उस कुर्सी की बार-बार मरम्मत के लिए देशवासियों से कतार में खड़ा करके खून माँगा गया है - ये कतारें कभी राशन के नाम पर हुई, कभी फ्री सामान बाँटने के नाम पर, कभी आधार नंबर बनाने के नाम पर या कभी अपने जमा किये पैसे निकालने के नाम पर। अब एक लाइन इस वादे के नाम पर शुरू की गयी है कि ये आखिरी बार लाइन है वैसे 70 के दशक में शुरू हुई गरीबी हटाओ की लाइन अभी भी बढ़ती जा रही है। जिस तरह से हमारे अंदर का देश बदला जा रहा है उसे देखकर यही कहना है कि सभी अपने अंदर अपना देश सम्हाल के रखें।
इस तरह ये साल गलाफाड़ साल रहा। आशा करता हूँ आने वाले साल में गलाफाड़ी कम होगी, फॉरवर्ड के मार्किट में मंदी रहेगी और सोशल मीडिया पर फॉरवर्ड मेसेज का ज्ञानरंजन कम होगा। कम इसलिए क्योंकि बंद हो नहीं सकता आदतें आसानी से जाती नहीं और कई बार जाने के बाद वापस आ जाती हैं- आदतें तो उस कील की तरह हैं जिस पर कैलेंडर टँगा होता है।
गतवर्ष में सोशल मीडिया पर एक नयी जाति का जन्म हुआ जिसे अंग्रेजी में troll कहा गया और हिंदी में पिछलग्गू। इस जाति की कोई विचारधारा नहीं है और ये फॉरवर्ड के मार्किट से उठा कर अपनी विचारधारा बनाती है या कई बार सोशल मीडिया पर गाली-गलौच करने में माहिर है-आगे आने वाले साल में ये जाति अपनी मनपसंद सरकार से कोटा की मांग कर सकती है ऐसी जाति के विकास को आगे आने वाले वर्षों में देखना दिलचस्प होगा। ये जाति डॉयनासोर के जैसी विशाल हो चुकी है पर ध्यान रखने वाली बात ये है कि डॉयनासोर की जाति अब लुप्त हो चुकी है।
इसी आशा से कि नए साल में कैलेंडर के साथ वो कील भी बदलेगी जिस पर वो टँगा है..

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