बुधवार, 7 जून 2017

सरकारों की वर्षगाँठे


जहाँ तक सरकारी नीतियों का सवाल है तो अगर सरकार की नीतियां सही हैं तो सरकार के तीन साल पूरे होने का जश्न जनता मनाएगी - सरकार नहीं। मध्यप्रदेश की ही बात लें कृषि विकास को लेकर सरकार ने सब पुरुस्कार बटोरे हैं और देश-दुनिया मे छाती पीटी है पर किसान का हो क्या रहा है कल देख ही लिया।

मेरे परिवार का एक सदस्य हटा में पिछले हफ्ते रात में बीमार पड़ा हटा छोड़ो दमोह (जिला) में भी इलाज नहीं हुआ फिर सागर में जाकर कुछ मिल सका। अपने उपक्रमों के कारण हम तो सम्पन्न हैं कि फटाफट गाड़ी किराये पे ली और दबा दी कहीं भी पर अंत्योदय का क्या होगा।

इसलिए कहता हूँ मित्रो पैसे कमाओ बीमार पड़ोगे तो निजी अस्पताल में इलाज कराना होगा और वहाँ पैसे लगते हैं - गाय या भारत माता का नाम बोलोगे तो बीमार शरीर को बाहर फेंक देंगे लेकिन क्रेडिट कार्ड, बीमा, दिखाओगे तो इलाज पाओगे।

ये आउटसोर्स सरकारें हैं जो शिक्षा, इलाज, परिवहन, रास्ते, व्यापार सब निजी क्षेत्र को आउटसोर्स किए हैं। तो सरकार का काम क्या है ये सोचने वाली बात है। शेयर बाजार 31000 हो चुका पर नौकरी नहीं हैं कंपनियों की अर्निंग काम हो रही हैं। तो हो क्या रहा है। कच्चा तेल के दाम इतना कम हो चुका है की पेट्रोल 50 का लीटर मिलना चाहिए।

एक सरकार दोषी नहीं है पर जो सिस्टम बदलने आये थे जिन्होंने सपने दिखाए थे कि देखो एक चुटकी बजाते ही सब हो जाएगा इसलिए इन पर दोष दिया जाता है।

ब्याज दरों के ऊपर नीचे करने से विकास ना होगा हालांकि इसके बिना भी ना होगा।

सोमवार, 29 मई 2017

अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूंगा"

"अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूंगा

देखो,
मैंने कंधे चौड़े कर लिए हैं
मुट्ठियां मजबूत कर ली हैं
और ढलान पर एड़ियां जमाकर
खड़ा होना मैंने सीख लिया है.

घबराओ मत
मैं क्षितिज पे जा रहा हूं
सूरज ठीक जब पहाड़ी से लुढ़कने लगेगा
मैं कंधे अड़ा दूंगा
अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूंगा.
रथ के घोड़े
आग उगलते रहें
अब पहिये टस से मस नहीं होंगे
मैंने अपने कंधे चौड़े कर लिए हैं.

अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूंगा"

~   (सर्वेश्वर दयाल सक्सेना)
         

शुक्रवार, 26 मई 2017

गाना, काव्य या जीवन - एक प्यार का नग़मा है

कल कुछ सुनने का मन हुआ और मैंने यूँ ही youtube में खोज शुरू की। जब मैंने संतोष आनंद जी को 'एक प्यार का नग़मा है' का पाठ करते सुना तो मैं आह्लादित हो उठा। इस गाने को मैंने पहले कई बार सुना था पर कल जिस तरह सुना वो अलग ही था। दिमाग में सिर्फ यही घूम रहा है।

ये गाना है, काव्य है या जीवन

एक प्यार का नग़मा है, मौजों की रवानी है ज़िंदगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है \- (२)
कुछ पाकर खोना है, कुछ खोकर पाना है जीवन का मतलब तो, आना और जाना है
दो पल के जीवन से, एक उम्र चुरानी है ज़िंदगी और... तू धार है नदिया की, मैं तेरा किनारा हूँ तू मेरा सहारा है, मैं तेरा सहारा हूँ आँखों में समंदर है, आशाओं का पानी है ज़िंदगी और...
तूफ़ान तो आना है, आकर चले जाना है बादल है ये कुछ पल का, छाकर ढल जाना है
परछाइंयाँ रह जातीं, रह जाती निशानी है ज़िंदगी और... जो दिल को तसल्ली दे, वो साज़ उठा लाओ दम घुटने से पहले ही, आवाज़ उठा लाओ खुशियों की तमन्ना है, अश्कों की रवानी है ज़िंदगी और...

शनिवार, 31 दिसंबर 2016

गलाफाड़ रहा….वर्ष 2016

गलाफाड़ रहा….वर्ष 2016
प्रदुषण कई तरह के हैं जो किताबों में पढाये जाते हैं पर एक नए तरह के प्रदुषण का कहीं कोई जिक्र नहीं मिलता वो है सोशल मीडिया का प्रदुषण। गत पूरे वर्ष में ऐसा देखा गया कि सोशल मीडिया पर वातावरण दूषित करने वाला ही रहा चाहे व्हाट्सएप्प ग्रुप पर हो या ट्विटर पर या फेसबुक पर।
मोबाइल फ़ोन निश्चित रूप से एक बहुत ही बड़ा अविष्कार है और सोशल मीडिया उससे भी बड़ा। सोशल मीडिया जिसका उद्देश्य लोगों को परस्पर इस तरह जोड़ना है कि पूरा विश्व हमारी मुट्ठी में समा जाए वही देखा गया कि सोशल मीडिया के कारण विश्व बिखर रहा है या हिस्सों में तो बंट ही रहा है।
सोशल मीडिया के सभी प्लेटफार्म पर विचारधारा दो भागों में बँटी दिखती है। हर व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान उसकी विचारधारा से ही होती है और निश्चित रूप से हर व्यक्ति की एक विचारधारा होती है जो उसकी सोच, उसके ज्ञान से पैदा होती है जो व्यक्ति में एक विचार पैदा करती है और व्यक्तित्व का एक ढांचा खड़ा करती है। पर सोशल मीडिया के प्रादुर्भाव और फॉरवर्ड मार्किट के प्रभाव से व्यक्ति की नैसर्गिक विचारधारा अंत हो गयी सी दिखती है।
इस वर्ष में यही सब कुछ हुआ। सोशल मीडिया पर इस तरह गलाफाड़ चलती रही कि पूरा वातावरण ही प्रदूषित हो गया। लोगों ने यहां से वहां से सब जगह से कचरा बीन-बीन कर दूसरों की दीवार पर दे मारा। इस तरह की गलाफाड़ से सोशल मीडिया का मुख्य उद्देश्य चला गया और सिर्फ गंदगी फ़ैलाने का जरिया बन गया। सोशल मीडिया कई बार तो सिर्फ राजनैतिक विचार संघर्ष का मुद्दा बन गया।
जिन लोगों ने कभी अपने माता-पिता को सपोर्ट नहीं किया वो नेताओं को सपोर्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़े। व्हाट्सएप्प पर, फेसबुक पर, ट्विटर पर भांति-भांति के नेताओं की फोटो DP बनाकर लगाई गयी। देशभक्ति के नाम पर विषवमन हुआ। नहले पे दहला हुआ, दहले पे गुलाम हुआ, गुलाम पे बेगम हुई, बेगम पे बादशाह हुआ और इक्का बेफिक्रे मौज करता रहा। गलफाड़ी इस कदर हुई कि कि कइयों को नया डाटा पैक डालना पडा, मोबाइल बार-बार चार्ज करना पड़ा और कई बार सस्ते के लिए पोर्ट कराना पड़ा - हालांकि JIO ने कुछ हद तक समस्यांए ख़त्म करने की कोशिश की पर JIO के कारण मोबाइल जल्दी डिस्चार्ज की समस्या पैदा हो गयी। गलाफाडी का आलम रात –दिन, सुबह-शाम मध्यरात्रि- देर रात्रि, ब्रह्म मुहूर्त सब समय चलता रहा। सुबह उठने से रात के सोने तक सोशल मीडिया पर गलफाड़ी चलती रही। लगा देश संकट में था या गलफाड़ी ना करें तो संकट में आ जाएगा।
फॉरवर्ड मेसेज को सबसे पहले भेजने की होड़ में कई बार बिना पढ़े ही फॉरवर्ड किया जाने लगा। गत-वर्ष में जब कभी व्हाट्सएप्प के सभी ग्रुप डाटा ऑन करने पर चमके - 206 unread messages. ऐसे लगा जैसे क्रांति आ गयी। तभी किसी ने मैसेज किया - "बेटा क्रांति के लिए खून बहाना पड़ता है, बटन दबाने से क्रांति नहीं आती" - ऐसे मेसेज से भी फॉरवर्डी हतोत्साहित नहीं हुए । लगा जैसे मैं स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए संघर्ष सामने होते देख रहा हूँ पर हताशा हुई क्योंकि अंग्रेज नहीं दिखे और देशवासी आपस में जा भिड़े नंगी तलवारें सानकर। यहां पर लोक हार गया और तंत्र जीत गया। पर इस सबसे कुछ फायदा नहीं हुआ। देश उसी चौराहे पर खड़ा है जहां 1947 में था या 1977 में या 1996 में या 2004 में या 2014 में। सिर्फ एक चीज ही इसमें नयी आ जुडी है और वो है मोबाइल फ़ोन। धीरे धीरे यकीन हो चला है कि देश के लिए आखिरी बार राजनीति 1947 में हुई थी - उसके बाद से आज तक जो भी राजनीति हुई है वो कुर्सी के लिए हुई है और उस कुर्सी की बार-बार मरम्मत के लिए देशवासियों से कतार में खड़ा करके खून माँगा गया है - ये कतारें कभी राशन के नाम पर हुई, कभी फ्री सामान बाँटने के नाम पर, कभी आधार नंबर बनाने के नाम पर या कभी अपने जमा किये पैसे निकालने के नाम पर। अब एक लाइन इस वादे के नाम पर शुरू की गयी है कि ये आखिरी बार लाइन है वैसे 70 के दशक में शुरू हुई गरीबी हटाओ की लाइन अभी भी बढ़ती जा रही है। जिस तरह से हमारे अंदर का देश बदला जा रहा है उसे देखकर यही कहना है कि सभी अपने अंदर अपना देश सम्हाल के रखें।
इस तरह ये साल गलाफाड़ साल रहा। आशा करता हूँ आने वाले साल में गलाफाड़ी कम होगी, फॉरवर्ड के मार्किट में मंदी रहेगी और सोशल मीडिया पर फॉरवर्ड मेसेज का ज्ञानरंजन कम होगा। कम इसलिए क्योंकि बंद हो नहीं सकता आदतें आसानी से जाती नहीं और कई बार जाने के बाद वापस आ जाती हैं- आदतें तो उस कील की तरह हैं जिस पर कैलेंडर टँगा होता है।
गतवर्ष में सोशल मीडिया पर एक नयी जाति का जन्म हुआ जिसे अंग्रेजी में troll कहा गया और हिंदी में पिछलग्गू। इस जाति की कोई विचारधारा नहीं है और ये फॉरवर्ड के मार्किट से उठा कर अपनी विचारधारा बनाती है या कई बार सोशल मीडिया पर गाली-गलौच करने में माहिर है-आगे आने वाले साल में ये जाति अपनी मनपसंद सरकार से कोटा की मांग कर सकती है ऐसी जाति के विकास को आगे आने वाले वर्षों में देखना दिलचस्प होगा। ये जाति डॉयनासोर के जैसी विशाल हो चुकी है पर ध्यान रखने वाली बात ये है कि डॉयनासोर की जाति अब लुप्त हो चुकी है।
इसी आशा से कि नए साल में कैलेंडर के साथ वो कील भी बदलेगी जिस पर वो टँगा है..

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

बाबूजी

रवीश का ब्लॉग। बिना उनकी परमिशन के यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ.

बाबूजी का तेरह मार्च


बाबूजी,

क्यों लगता है कि आप जिस दिन गए उसी दिन लौट भी आयेंगे । छह साल से तेरह मार्च को यही लगता रहा है। कुछ दिन पहले आप जिस अस्पताल में आँख दिखाते थे वहाँ से मेरे फ़ोन पर मैसेज आ गया। पूछ रहा था कि मुझे आपके बारे में कोई जानकारी अपडेट तो नहीं करनी है। उस मैसेज ने मेरी उम्मीद बढ़ा दी है। लग रहा है कि फ़ोन कर डाक्टर से समय ले लूँ। वहाँ जाकर बैठ जाऊँ। इंतज़ार करूँ। काॅफी ले आऊँ। आपसे पूछूँ कि कुछ खाना है। फिर सैंडविच ख़रीद कर खा लूँ। कहीं आप वहाँ गए तो नहीं थे। आपके जाने के छह साल बाद आपके नाम से मैसेज आ सकता है तो आप क्यों नहीं आ सकते।

काश कि पटना के उस अस्पताल से खींच लाता आपको। आपके बालों को और ठीक से सहला पाता। ठीक से लिपट भी नहीं सका। अभी मेरे पास पैसा भी है। सब जानते हैं मुझे। अच्छे डाक्टर से दिखवा देता। डाक्टर हेमंत से बहुत गिड़गिड़ाया था कि चल कर आपको देख ले मगर उनको मगध अस्पताल से कोई अहं का टकराव था। मगध वाले ने हाँ भी कर दिया था कि ले आइये उनके मगर हेमंत साहब गए ही नहीं । आप कितना भरोसा करने लगे थे डा हेमंत पर। इंग्लैंड से पढ़ कर आया है। पटना में ही मरीज़ देख रहा है। दिल्ली वाले डाक्टर से कम तेज़ नहीं। लेकिन वो नहीं गए न। मैं कहता रहा कि सर एक बार देख लीजिये। नहीं गए। आप चले गए। आप चिंता मत कीजिये। डाक्टर साहब से तो एक बार मिलने ज़रूर जाऊँगा। एक गुलदस्ता लेकर।

क्या करें। भूल ही नहीं पा रहा हूँ। इन छह सालों में मुझे बहुत कुछ मिला है। लोग कहते हैं कि मैं फ़ेमस हो गया हूँ। लोग मुझे घेर लेते हैं। फोटो खिंचाते हैं। आटोग्राफ माँगते हैं। हमको फिर रामनाथ गोयनका अवार्ड मिला है । पहीलका बार आप केतना ख़ुश थे । रहते तो उससे भी ज़्यादा ख़ुश होते । माँ नहीं आ पाई थी । खूब तारीफ़ हो रही है । मैं उसी पटना में हीरो की तरह जाता हूँ जहाँ आपके लिए एक डाक्टर नहीं ला पाया । कितना तो कहता था कि दिल्ली ही रहिए । डा खेर कितने प्यार से देखते थे । डा प्रवीण चंद्रा को को आप याद भी थे । सच या झूठ जब फ़ोन पर कहा तो हाँ हाँ कर रहे थे । मंगलवार को दिल्ली हाट के पास एक डाक्टर मिला था । डा विशाल सिंह । बोला कि वो मेरा फ़ैन है । मेरी आँख भर आई । मुझे लगा कि इसको पहले से जानता तो इसी को ले जाता । आपका सोच कर उससे गिड़गिड़ाने लगा । डाॅक्टर विशाल आप पैसा खूब कमाओगे लेकिन रोज़ पाँच ग़रीब का बढ़िया ईलाज कर देना । वो भी कहने लगा कि हाँ सर बल्कि करते भी हैं । मैंने कह दिया कि मैं डाक्टर होता तो सड़क पर टेबल लगाकर लोगों का ईलाज करता । मौलाना आजा़द में पढ़ता है । मुज़फ्फरेपुर का है । 

आपकी छोटी वाली पोती दो साल की हो जाएगी । बीच बीच में आपका फोटो दिखाते रहते हैं । देखो ये दादा जी हैं । आप तो देख ही नहीं पाए । बड़ी वाली अपनी दुनिया में मगन रहने लगी है । वो आपको याद करती है ।  माँ अभी रहकर पटना गई है । दिन भर पूजा करती है । आपकी तरह नाश्ता देर से करने लगी है । बिस्तर के एक कोने में सिकुड़ कर सोती है । जैसे आप मेरा इंतज़ार करते थे वैसे ही माँ रोज़ मेरे आने की आहट गिनती थी । आपकी ही बात करती रहती थी । उसको कोई कुछ बोल देता है तो आपको बहुत याद करती है ।  अकेले पड़ गई है । माँ ख़ाली हो गई है । हमदोनों आपकी ही बात करते रहते हैं । डाक्टर से देखा दिये हैं । ट्रेन में बिठाकर उससे लिपट गया । छोड़ ही नहीं रही थी । जब भी पूछता हूँ माँ कुछ चाहीं तो मना कर देती है । कहती है रहे द, हमरा का होई । तू अपना ख़ातिर ले ल । अपने से कुछ मांगती भी नहीं है । 

बाकी लोग भी ठीक है । आप ही नहीं हैं तो क्या ठीक है । आपके बिना अकेला लगता है । लगता है कि कुछ काम ही नहीं है । डाक्टर के पास नहीं जाना है । स्टेशन आपको लेने नहीं जाना है । सुबह उठकर आपको फ़ोन नहीं करना है । जब सब कोई सो जाता है तो बिलाला लेखा बौराते रहते हैं । कभी कभी कमज़ोर पड़ जाता हूँ । आपकी तरह बोलने लगता हूँ । आपको याद करने के लिए बेमतलब किसी को आपकी तरह कस के डपट देता हूँ । इस बार छठ में गाँव गया था । जिस रास्ते से आपको गंडक के किनारे अंतिम विदाई के लिए ले गया था उस पर गया था । आपके पोता को भी रास्ता याद है । अंकल दादा जी को इधर से ही ले गए थे न । साइकिल खूब हांकता है । हमदोनों साइकिल से घाट तक चले गए । आपके पीछे पीछे । 

मेरी चिट्ठी कोई पढ़ता ही नहीं । आप पढ़ लीजियेगा । मैं अपनी तमाम उपलब्धियों की तिलांजलि दे दूँगा । मुझे कोई ऐसी चीज़ नहीं चाहिए जिसमें आप नहीं हैं । जो आपके बाद है । इस बार भी आफिस नहीं गया हूँ । चला जाता तो आपसे इतनी बातें कैसे कर पाता । मेरे बालों में एक बार हाथ फेर दीजिये न । अच्छा लगेगा ।  

आपका  

रवीश कुमार 

सोमवार, 3 मार्च 2014

आम आदमी का अर्थशास्त्र- जयप्रकाश चौकसे

आम आदमी का भव्य पूंजी निवेशक रूप 


गोरखपुर में स्थित गीता प्रेस ने धर्म की अनेक पुस्तकें कम दामों में जनता को उपलब्ध कराई हैं और दशकों से इनकी संस्था 'कल्याण' नामक पत्रिका निकालती रही है और इनके महाभारत खंड एक और दो अनेक घरों में शोभायमान है। इस तरह धार्मिक आख्यानों के अनुवाद आम आदमी तक पहुंचे। इसी गोरखपुर से सुब्रत राय ने अपना कॅरिअर शुरू किया, वे लेम्ब्रेटा नामक दुपहिया पर घर-घर जाकर नमकीन बेचते थे और वह दुपहिया वाहन कांच के कैबिन में उनके लखनऊ स्थित महल में आज भी मौजूद है, यह बात अलग है कि वर्षों से सुब्रत राय आयात की गई लक्जरी लिमोजीन में घूमते रहे है और फिल्म उद्योग में भी उन्होंने पूंजी निवेश करके फिल्में बनाई है तथा सहारा टेलीविजन के लिए फिल्म प्रसारण के अधिकार खरीदे है और उनकी बोनी कपूर द्वारा बनाई 'नो एंट्री' सबसे अधिक बार सहारा टेलीविजन पर दिखाई गई है। 

इनके दो पुत्रों के विवाह पर 500 करोड़ खर्च हुए थे और शादी के उत्सव पर अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान मौजूद थे। अमर सिंह सलाहकार के रूप में वर्षों तक जुड़े रहे और सुब्रत राय के जीवन के अमर सिंह काल खंड में वे फिल्म उद्योग में सबसे विराट शोमैन के रूप में उभरे। इनकी शोमैनशिप का ही यह आलम था कि इनकी लिमोजीन को एक बड़ा उद्योगपति चला रहा था और पिछली सीट पर ऐश्वर्य राय तथा सुब्रत राय बैठे थे। ऐसा एक चित्र प्रकाशित भी हुआ था। 

बहरहाल सुब्रत राय ने आम आदमियों के छोटे-छोटे निवेश से एक साम्राज्य खड़ा कर लिया था। इनके पूंजी निवेशक आम आदमी थे जो पांच रुपए महीने जमा करते थे। बूंद-बूंद से इनके साम्राज्य का सागर भरा और आज वे कठघरे में है। उनसे 24 हजार करोड़ रुपए जमाकर्ताओं का लौटाने का आदेश विगत एक वर्ष से सुप्रीम कोर्ट ने जारी किया है और सहारा की कार्यप्रणाली के विषय में सारी बातें अब सामने आ रही है परंतु यह खेल कुछ वैसा ही शुरू हुआ था जैसे राजकपूर की अब्बास द्वारा लिखी सर्वकालिक महान फिल्म 'श्री 420' में सेठ सोनाचंद धर्मानंद ईमानदारी का गोल्ड मैडल जीत कर इलाहाबाद से बम्बई आए आम आदमी को सामने रखकर 'सौ रुपए में मकान' का सपना बेचते हैं। दरअसल भारत का आम आदमी सपनों का सबसे बड़ा खरीदार हमेशा रहा है और सपनों के सौदागर हर बार नए मुखौटे के साथ सामने आते है और बार बार ठगे जाने के लिए आतुर आम आदमी मायाजाल में फंसता रहता है। यह विचारणीय है कि आम आदमी सपने क्यों खरीदता है। सपनों के नाम पर ठगे जाने के बाद भी वह पुन: ठगा जाने के लिए तैयार रहता है। तांबे के आभूषणों को स्वर्ण आभूषणों में बदलने का पुराना हथकंडा आज भी कारगर है। दरअसल हजारों सालों से आम आदमी निहत्था ही जीवन संग्राम में जुटा है और अन्याय आधारित व्यवस्था का शिकार रहा है। वह देखता है कि कुछ लोग वैभवशाली जीवन जी रहे हैं, उनके पास सब कुछ है और आम आदमी परिश्रम करता जा रहा है परंतु उसके पास कुछ नहीं है। यह जो भयावह आर्थिक खाई दिनोदिन गहरी होती जा रही है, इसी आर्थिक खाई के कारण आम आदमी सपनों का सबसे बड़ा खरीदार बन गया है। इसी ठगे जाने वाले आम आदमी ने कभी क्रांति नहीं की क्योंकि धर्म की अफीम उसे सारा समय गफलत में रखती है कि समृद्धि पिछले जन्म का पुण्य है। वह नहीं जानता कि उसकी सामूहिक पूंजी कितने विराट जलसा घर रचती है। 

बहरहाल गीता प्रेस के महान प्रयास का सुब्रतराय के साम्राज्य या इस तरह के अनेको साम्राज्य का क्या अपरोक्ष संबंध है। इस जटिल सवाल पर सरल सी रोशनी श्री 420 के एक दृश्य में नजर आता है। चौपाटी पर सेठ सोनाचंद चुनावी भाषण झाड़ रहे हैं गोयाकि एक सपना बेच रहे है और सामने एक बेरोजगार युवा दंत मंजन बेच रहा है गोयाकि आम आदमी ईमानदारी की रोटी कमाने का प्रयास कर रहा है। उसकी मनोरंजक बातों से सेठ सोनाचंद का मजमा उखड़ जाता है तो वे अपने दंतविहीन चमचे को संकेत करते हैं। वह जाकर पूछता है कि इस दंत मंजन में हड्डी का चूरा तो नहीं है कि धरम भ्रष्ट हो जाए। दंत मंजन वाला सच बताता है कि इसमें तो चौपाटी की रेत और कोयला है। जनता उसकी पिटाई कर देती है गोयाकि सोनाचंद जैसे लोग धरम के नाम पर ईमानदार आय आदमी को प्रयास ही नहीं करने देते। यह खेल सदियों से चल रहा है। 
धर्म के असली स्वरूप को छुपाकर उसके नाम पर आम आदमी पिसता हता है और सोनाचंद जैसे लोग पनपते रहते हैं। यह महज इत्तेफाक है कि गोरखपुर में गीता प्रेस है और वही से सुब्रतराय की यात्रा शुरू हुई है। गीता प्रेस में प्रकाशित किताबों का कैसे इस्तेमाल हो रहा है, यह वे भी नहीं जानते। 
jpchoukse@dainikbhaskargroup.com 
जयप्रकाश चौकसे 
परदे के पीछे 
http://epaper.bhaskar.com/bhopal/120/03032014/mpcg/1/ 

बुधवार, 26 जून 2013

उसी की जनवरी है/ उसी का अगस्त है

ताड़ का तिल है/ तिल का ताड़ है/
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है/ 
किसकी है जनवरी/ किसका अगस्त है/
कौन यहां सुखी है/ कौन यहां मस्त है/ 
सेठ ही सुखी है। सेठ ही मस्त है/ 
मंत्री ही सुखी है/ मंत्री ही मस्त है/ 
उसी की जनवरी है/ उसी का अगस्त है।

-बाबा नागार्जुन